ये दोस्ती चढ़ेगी परवान?
-आनंद सिंह भाजपा और अगप, दोनों के बीच दोस्ती को लेकर लंबे अर्से से वार्ता चल रही है लेकिन इस वार्ता का कोई निष्कर्ष नहीं निकला। ऐसे में यह सवाल बड़ा हो जाता है कि क्या अगप-भाजपा की दोस्ती परवान चढ़ेगी भी? अगर नहीं तो इसके परिणाम क्या होंगे?
असम भाजपा लगता है मुंगेरी लाल के हसीन सपने देखने में बिजी हो गई है। किसी सर्वे एजेंसी ने अपनी रिपोर्ट में कहा है कि असम में भाजपा को सरकार बनाने से कोई नहीं रोक सकता। इसी रिपोर्ट को भाजपा वाले हथियार के रूप में इस्तेमाल कर रहे हैं। यह हथियार अगप के लिए भी इस्तेमाल हो रहा है। अगप यानी असम गण परिषद, यानी एक ऐसी पार्टी जो दो बार प्रदेश की सत्ता में रही है और भाजपा से उसकी दोस्ती हो या नहीं हो, इस पर अब तक फैसला होना बाकी है। भाजपा का कैडर कभी नहीं चाहता कि अगप से दोस्ती हो। अगप का कैडर भी रण क्षेत्र में अकेलेदम दो-दो हाथ करने के मूड में है। लेकिन, अगप के अध्यक्ष अतुल बोरा और भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष और सीएम कैंडिडेट सर्वानंद सोनोवाल दोस्ती के पक्ष में हैं। कई दौर की बातचीत हो चुकी है लेकिन भाजपा और अगप में दोस्ती अब तक पक्की नहीं हो पाई है। दोनों ही पार्टियों के कैडर में इसको लेकर कशमकश की स्थिति है।
दरअसल, भाजपा की मौजूदगी पूरे असम में नहीं है। कहने को यह बेशक कहा जाता है कि भाजपा के 25 लाख से ज्यादा मेंबर असम में हैं लेकिन पार्टी कार्यकर्ता ही इसे सिरे से खारिज कर देते हैं। यही हाल अगप का भी है। अगप को दो-दो बार प्रदेश में हुकूमत करने का मौका मिला लेकिन सत्ता जाने के बाद से, यानी 2001 के बाद से अगप की वह जानदार मौजदूगी सूबे में नहीं है, जो सत्ता काल में थी। अगप के ज्यादातर लोग भाजपा या कांग्रेस में आ गए। आपको बता दें कि सर्वानंद सोनोवाल भी पहले अगप में ही थे। जब उन्होंने भाजपा ज्वाइन किया तो उनके साथ अगप का एक बहुत बड़ा हिस्सा भाजपा में आ गया। तो, जो मौजदूगी पहले थी, वह अब नहीं रही। यह सीधे-सीधे जनाधार को प्रभावित करने वाला तथ्य है। भाजपा के लोग बेशक 30-30 साल से पार्टी का झंडा ढो रहे हैं लेकिन उन्हें भी वह पहचान नहीं मिली जो 30 वर्षों में आम तौर पर लोगों को मिल जाती है। तो, गठबंधन या दोस्ती इन दोनों के लिए जरूरी है क्योंकि लगातार 15 साल तक हुकूमत में रहने के कारण कांग्रेस की पहुंच गांव स्तर तक हो चुकी है और कहना न होगा कि यह बहुत मजबूत पहुंच है। इस मजबूत पहुंच (स्ट्रांग एप्रोच) को अकेले भाजपा या अगप तोड़ने से रही।
अगप में एक ओर अतुल बोरा हैं जो हर हाल में भाजपा से दोस्ती की उम्मीद जिंदा रखना चाहते हैं। वह अगप के अध्यक्ष हैं और उन्हें पता है कि उनकी पार्टी कितने पानी में है। उनके साथ दुर्गादास बोड़ो सऱीखे लोग भी हैं जो चाहते हैं कि सम्मानजनक दोस्ती हो। लेकिन बहुत सारे लोग ऐसे हैं जो एकदम नहीं चाहते कि भाजपा से अगप दोस्ती करे। अगप के पूर्व अध्यक्ष वृंदावन गोस्वामी मानते हैं कि दोस्ती बराबरी की हो तो ठीक वरना अकेले चुनाव लड़ना बेहतर है। अगप के जेनरल सेक्रेट्री दुर्गादास बोड़ो, प्रदीप हजारिका और फणिभूषण चौधरी भी चाहते हैं कि अगप का गठबंधन हो। या तो कांग्रेस के साथ या फिर भाजपा के साथ। लेकिन वे भी चाहते हैं कि अगप को लोअर हैंड मान कर दोस्ती न की जाए। प्रदीप हजारिका ने कहाः हम दोस्ती के ख्वाहिशमंद हैं पर सम्मान के साथ और बराबरी के साथ। हम सूबे में दो बार सरकार में रह चुके हैं, इसे भी लोगों को नहीं भूलना चाहिए।
भाजपा अपनी पुरानी रट पर कायम है। वह अगप को 15 से 20 सीटों से ज्यादा नहीं देना चाहती। 126 सीटों में से 28 सीटों पर उसका बीडीएफ से समझौता हुआ है। अगर वह अगप की मांग के अनुसार 28 से 30 सीटें दे देती है तो कुल सीटें बचेंगी मात्र अड़सठ। तो, 68 सीटों पर चुनाव लड़ कर भाजपा को क्या हासिल होगा, यह सवाल पार्टी के भीतर लगातार चल रहा है। यही वजह है कि पार्टी ने साफ-साफ कह दिया है कि वह अगप को उतनी सीटें नहीं दे पाएगी जितनी वो चाहती है। भाजपा के महामंत्री विजय गुप्ता कहते हैः हम अगप से इसलिए गठबंधन के इच्छुक हैं ताकि चुनाव में वोट खराब न हो, हमारा नुकसान न हो। इस ग्राउंड पर हम उनसे दोस्ती करने के अभिलाषी हैं। लेकिन वह जितनी सीटें मांग रहे हैं, उतनी देना भाजपा के लिए संभव नहीं है। अगप अगर अकेलेदम चुनाव लड़ती है तो परिणाम उनके लिए बेहद खराब आएंगे। यह उनको समझना होगा। हम मूलतः वोटों का बंटवारा रोकना चाहते हैं। हमारी बातचीत लगातार चल रही है। अगर गठबंधन होता है तो ग्राउंड लेबल पर होना चाहिए और ग्राउंड लेबल पर मिल कर काम करने की जरूरत होगी।दरअसल, भाजपा यह मान कर चल रही है कि अगप का वोटर उसे ज्यादा सीट नहीं दिला पाएगा। अगप मान रही है कि भाजपा राष्ट्रीय पार्टी है और उसे सर्वाइव करने के लिए अगप से दोस्ती करनी ही पड़ेगी। लेकिन दोनों भूल जा रहे हैं कि जनता कांग्रेस के काम से अभी नाराज नहीं हुई है। लिहाजा, भाजपा और अगप के बीच जितने दिनों की दोस्ती की बात फाइनल नहीं होती, कांग्रेस की तो बल्ले बल्ले ही है।
अगर दोस्ती नहीं हुई तो...
-कांग्रेस बेहद राहत में रहेगी। वह चुनाव प्रचार में भाजपा और अगप पर और जोरदार आक्रमण करेगी।
अगप के पास संसाधनों की कमी है, ऐसा कहा जाता है। तो, वह बहुत प्रभावी तरीके से चुनाव प्रचार कर पाएगी इसमें संदेह है। वैसे, अगप का कैडर अपनी पर उतर आए तो चुनाव की दशा और दिशा बदल सकती है लेकिन इसकी संभावना बेहद कम है। अगप का यह तर्क है कि 2001 में हुए चुनाव में भाजपा-अगप दोस्ती का भी कोई फायदा नहीं हुआ था। 2016 में कौन सा चमत्कार हो जाएगा।भाजपा मूल रूप से कैडर बेस्ड पार्टी है। अगर कैडर तक यह मैसेज सही तरीके से कन्वे कर दिया जाए कि अगप से दोस्ती नहीं होगी तो हो सकता है कि भाजपा को चुनाव में ज्यादा बढ़िया रिस्पांस मिले। वैसे अनेक लोग यह भी मानते हैं कि भाजपा और अगप के बीच गठबंधन नहीं होने से अगप से ज्यादा घाटा भाजपा को होगा।
अगर दोस्ती हो गई तो...
सबसे खराब असर अगप पर पड़ेगा। अगप का कैडर बिल्कुल नहीं चाहता कि भाजपा या कांग्रेस से दोस्ती हो। कैडर अकेलेदम चुनाव लड़ना चाहता है। कुछ हफ्ते पहले अंचल कार्यकर्ताओं ने अगप मुख्यालय पर हंगामा खड़ा कर दिया था। इन लोगों ने कहा था कि अगर पार्टी नहीं चला सकते तो हमें दे दो। हम चलाकर दिखाएंगे। तो, अगप को अपने वर्करों को समझाना पड़ेगा। लगता नहीं कि ये वर्कर समझ पाएंगे।
भाजपा को यह फायदा होगा कि जो भी वोट उसके खिलाफ पड़ने वाले होंगे, वो नहीं पड़ेगे। ऐसी हालत में भाजपा कई स्थानों पर मजबूत होकर उभरेगी।
सबसे ज्यादा चिंता कांग्रेस को होगी। मुख्यमंत्री तरूण गोगोई और प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष अंजन दत्त को मालूम है कि अगर भाजपा और अगप एक साथ चुनाव लड़ते हैं तो चौथी बार गोगोई का सीएम बनना मुश्किल में पड़ सकता है।
(यह लेखक के अपने विचार हैं। लेखक कई अखबारों के संपादक रह चुके हैं। वर्तमान में ओपिनियन पोस्ट पत्रिका के नार्थ-ईस्ट हेड हैं।)
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